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हमारा समाज ही हमारा धर्म है


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Holkar Maharaja of Indore (होलकर)

होलकर राजवंश मल्हार राव से प्रारंभ हुआ जो १७२१ में पेशवा की सेवा में शामिल हुए और जल्दी ही सूबेदार बने। होल्कर वंश के लोग 'होलगाँव' के निवासी होने से 'होल्कर' कहलाए। उन्होने और उनके वंशजों ने मराठा राजा और बाद में १८१८ तक मराठा महासंघ के एक स्वतंत्र सदस्य के रूप में मध्य भारत में इंदौर पर शासन किया और बाद में भारत की स्वतंत्रता तक ब्रीटिश भारत की एक रियासत रहे।

होलकर वंश उन प्रतिष्ठित राजवंशों मे से एक था जिनका नाम शासक के शीर्षक से जुडा, जो आम तौर पर महाराजा होल्कर या 'होलकर महाराजा' के रूप में जाना जाता था, जबकि पूरा शीर्षक 'महाराजाधिराज राज राजेश्वर सवाई श्री (व्यक्तिगत नाम) होलकर बहादुर, महाराजा ऑफ़ इंदौर' था।

परिचय

सर्वप्रथम मल्हाराव होल्कर ने इस वंश की कीर्ति बढ़ाई। मालवाविजय में पेशवा बाजीराव की सहायता करने पर उन्हें मालवा की सूबेदारी मिली। उत्तर के सभी अभियानों में उन्होंने में पेशवा को विशेष सहयोग दिया। वे मराठा संघ के सबल स्तंभ थे। उन्होंने इंदौर राज्य की स्थापना की। उनके सहयोग से मराठा साम्राज्य पंजाब में अटक तक फैला। सदाशिवराव भाऊ के अनुचित व्यवहार के कारण उन्होंने पानीपत के युद्ध में उसे पूरा सहयोग न दिया पर उसके विनाशकारी परिणामों से मराठा साम्राज्य की रक्षा की।

मल्हारराव के देहांत के पश्चात् उसकी विधवा पुत्रवधू अहल्या बाई ने तीस वर्ष तक बड़ी योग्यता से शासन चलया। सुव्यवस्थित शासन, राजनीतिक सूझबूझ, सहिष्णु धार्मिकता, प्रजा के हितचिंतन, दान पुण्य तथा तीर्थस्थानों में भवननिर्माण के लिए ने विख्यात हैं। उन्होंने महेश्वर को नवीन भवनों से अलंकृत किया। सन् १७९५ में उनके देहांत के पश्चात् तुकोजी होल्कर ने तीन वर्ष तक शासन किया। तदुपरांत उत्तराधिकार के लिए संघर्ष होने पर, अमीरखाँ तथा पिंडारियों की सहायता से यशवंतराव होल्कर इंदौर के शासक बने। पूना पर प्रभाव स्थापित करने की महत्वाकांक्षा के कारण उनके और दोलतराव सिंधिया के बीच प्रतिद्वंद्विता उत्पन्न हो गई, जिसके भयंकर परिणाम हुए। मालवा की सुरक्षा जाती रही। मराठा संघ निर्बल तथा असंगठित हो गया। अंत में होल्कर ने सिंधिया और पेशवा को हराकर पूना पर अधिकार कर लिया। भयभीत होकर बाजीराव द्वितीय ने १८०२ में बेसीन में अंग्रेजों से अपमानजनक संधि कर ली जो द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध का कारण बनी। प्रारंभ में होल्कर ने अंग्रेजों को हराया और परेशान किया पर अंत में परास्त होकर राजपुरघाट में संधि कर ली, जिससे उन्हें विशेष हानि न हुई। १८११ में यशवंतराव की मृत्यु हो गई।

अंतिम आंग्ल-मराठा युद्ध में परास्त होकर मल्हारराव द्वितीय को १८१८ में मंदसौर की अपमानजनक संधि स्वीकार करनी पड़ी। इस संधि से इंदौर राज्य सदा के लिए पंगु बन गया। गदर में तुकोजी द्वितीय अंग्रेजी के प्रति वफादार रहे। उन्होंने तथा उनके उत्तराधिकारियों ने अंग्रेजों की डाक, तार, सड़क, रेल, व्यापारकर आदि योजनाओं को सफल बनाने में पूर्ण सहयोग दिया। १९०२ से अंग्रेजों के सिक्के होल्कर राज्य में चलने लगे। १९४८ में अन्य देशी राज्यों की भाँति इंदौर भी स्वतंत्र भारत का अभिन्न अंग बन गया और महाराज होल्कर को निजी कोष प्राप्त हुआ।

होलकर साम्राज्य की स्थापना

मल्हारराव होलकर (जन्म १६९४, मृत्यु १७६६) ने इन्दौर मे परिवार के शासन कि स्थापना की। उन्होने १७२० के दशक मे मालवा क्षेत्र में मराठा सेनाओं की संभाली और १७३३ में पेशवा ने इंदौर के आसपास के क्षेत्र में ९ परगना क्षेत्र दिये। इंदौर शहर मुगल साम्राज्य द्वारा मंजूर, 3 मार्च १७१६ दिनांक से कंपेल के नंदलाल मंडलोई द्वारा स्थापित एक स्वतंत्र रियासत के रूप में पहले से ही अस्तित्व में था। वे नंदलाल मंडलोई ही थे जिन्होने इस क्षेत्र में मराठों को आवागमन की अनुमती दी और खान नदी के पार शिविर के लिए अनुमति दी। मल्हार राव ने १७३४ में ही एक शिविर की स्थापना की, जो अब में मल्हारगंज के नाम से जाना जात है। १७४७ मे उन्होने अपने राजमहल, राजवाडा का निर्माण शुरू किया। उनकी मृत्यु के समय वह मालवा के ज्यादातर क्षेत्र मे शासन किया और मराठा महासंघ के लगभग स्वतंत्र पाँच शासकों में से एक के रूप में स्वीकार किया गया।

उनके बाद उनकी बहू अहिल्याबाई होलकर (१७६७-१७९५ तक शासन किया) ने शासन की कमान संभाली। उनका जन्म महाराष्ट्र में चौंडी गाँव में हुआ था। उन्होने राजधानी को इंदौर के दक्षिण मे नर्मदा नदी पर स्थित महेश्वर पर स्थानांतरित किया। रानी अहिल्याबाई कई हिंदू मंदिरों की संरक्षक थी। उन्होने अपने राज्य के बाहर पवित्र स्थलों में मंदिरों का निर्माण किया।

मल्हार राव होलकर के दत्तक पुत्र तुकोजीराव होलकर (शासन: १७९५-१७९७) ने कुछ समय के लिये रानी अहिल्याबाई की मृत्यु के बाद शासन संभाला। हालांकि तुकोजी राव ने अहिल्याबाई कए सेनापती के रूप मे मंडलोई द्वरा इंदौर की स्थापना के बाद मार्च १७६७ में अपना अभियान शुरु कर दिया था। होलकर १८१८ से पहले इन्दौर मे नही बसे।

यशवंतराव होलकर

उनकी मृत्यु के बाद उनके पुत्र यशवंतराव होलकर (शासन: १७९७-१८११) ने शासन की बागडोर संभाली। उन्होने अंग्रेजों की कैद से दिल्ली के मुगल सम्राट शाह आलम को मुक्त कराने का फैसला किया, लेकिन असफल रहे। अपनी बहादुरी की प्रशंसा में शाह आलम ने उन्हे "महाराजाधिराज राजराजेश्वर आलीजा बहादुर" उपाधि से सम्मानित किया।

यशवंतराव होलकर ने १८०२ में पुणे के निकट हादसपुर में सिंधिया और पेशवा बाजीराव द्वितीय की संयुक्त सेनाओं को हराया। पेशवा अपनी जान बचाकर पुणे से बेसिन भाग निकले, जहां अंग्रेजों ने सिंहासन के लालच के बदले में सहायक संधि पर हस्ताक्षर की पेशकश की। इस बीच, यशवंतराव ने पुणे में अमृतराव को अगले पेशवा के रूप में स्थापित किया। एक महीने से अधिक के विचार - विमर्श के बाद उनके भाई को पेशवा के रुप मे मान्यता मिलने के खतरे को देखते हुए, बाजीराव द्वितीय ने संधि पर हस्ताक्षर किए और अपनी अवशिष्ट संप्रभुता का आत्मसमर्पण किया और जिससे अंग्रेज उसे पूना में सिंहासन पर पुनः स्थापित करें।

महाराजा यशवंतराव होलकर ने जब देखा कि अन्य राजा अपने व्यक्तिगत स्वार्थों के चलते एकजुट होने के लिए तैयार नहीं थे, तब अंततः २४ दिसम्बर १८०५ को राजघाट नामक स्थान पर अंग्रेजों के साथ संधि (राजघाट संधि) पर हस्ताक्षर कर दिये। वे भारत के एक्मात्र ऐसे राजा थे जिन्हे अंग्रेजों ने शांति संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए संपर्क किया था। उन्होने ऐसी किसी भी शर्त को स्वीकार नही किया जिससे उनका आत्म सम्मान प्रभावित होता। अंग्रेजों ने उन्हे एक संप्रभु राजा के रूप में मान्यता प्रदान की और उसके सभी प्रदेश लौटाए। उन्होने जयपुर, उदयपुर, कोटा, बूंदी और कुछ अन्य राजपूत राजाओं पर उनके प्रभुत्व को भी स्वीकार किया। उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि वे होलकर के मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे। यशवंतराव होलकर एक प्रतिभाशाली सैन्य नेता था, जिन्होने दूसरे आंग्ला-मराठा युद्ध में अंग्रेजों से लोहा लिया था। कुछ शुरुआती जीतों के बाद, वह उन्होंने के साथ शांति संधि की।


माहिदपुर का युद्ध

१८११ में, महाराजा मल्हारराव तृतीय, ४ वर्ष की उम्र में शासक बने। महारानी तुलसाबाई होलकर ने प्रशासन का कार्यभाल संभाला। हालांकि, धरम कुंवर और बलराम सेठ ने पठानो और पिंढरियों की मदद से अंग्रेजो के साथ मिलकर तुलसाबाई और मल्हारराव को बंदी बनाने का षढयन्त्र रचा। जब तुलसाबाई को इसके बारे में पता चला तो उन्होने १८१५ में उन दोनों को मौत की सजा दी और तांतिया जोग को नियुक्त किया। इस कारण, गफ़्फूर खान पिंडारी ने चुपके से ९ नवम्बर १८१७ को अंग्रेजो के साथ एक संधि की और १९ दिसम्बर १८१७ को तुलसाबाई की हत्या कर दी। अंग्रेजो ने सर थॉमस हिस्लोप के नेतृत्व में, २० दिसम्बर १८१७ को पर हमला कर माहिदपुर की लड़ाई में ११ वर्ष के महाराजा मल्हारराव तृतीय, २० वर्ष के हरिराव होलकर और २० वर्ष की भीमाबाई होलकर की सेना को परास्त किया। होलकर सेना ने युद्ध लगभग जीत ही लिया था लेकिन अंत समय में नवाब अब्दुल गफ़्फूर खान ने उन्हे धोखा दिया और अपनी सेना के साथ युद्ध का मैदान छोड़ दिया। अंग्रेजो ने उसके इस कृत्य के लिये गफ़्फूर खान को जावरा की जागीर दी। ६ जनवरी १८१८ को मंदसौर में संधि पर हस्ताक्षर किए गए। भीमाबाई होलकर ने इस संधि को नहीं स्वीकार किया और गुरिल्ला विधियों द्वारा अंग्रेजो पर हमला जारी रखा। बाद में झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई ने भीमाबाई होलकर से प्रेरणा लेते हुये अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध लड़े। इस तीसरे एंग्लो - मराठा युद्ध के समापन पर, होलकर ने अपने अधिकांशतः क्षेत्रों अंग्रेजों को खो दिए और ब्रिटिश राज मे एक रियासत के तौर पर शामिल हुआ। राजधानी को भानपुरा से इंदौर स्थानांतरित कर दिया गया।

रियासत

मल्हारराव होलकर तृतीय ने २ नवम्बर को इंदौर में प्रवेश किया। क्योंकि वे अवयस्क थे, इसलिये तांतिया जोग को दीवान नियुक्त किया गया। पुराना महल दौलत राव सिंधिया की सेना के द्वारा नष्ट कर दिया गया था अतः एक नए महल का निर्माण किया गया। मल्हारराव होलकर तृतीय के बाद मार्तंडराव ने औपचारिक रूप से १७ जनवरी १८३४ को सिंहासन संभाला। लेकिन वह यशवंतराव के भतीजे हरिराव होलकर से १७ अप्रैल १८३४ को बदल दिये गये। उन्होने २ जुलाई १८४१ को खांडेराव होलकर को गोद लिया और २४ अक्टूबर १८४३ को निधन हो गया। खांडेराव १३ नवम्बर १८४३ को शासक बने पर १७ फ़रवरी १८४४ को अचानक उनकी मृत्यु हो गई। तुकोजीराव होलकर द्वितीय (१८३५-१८८६) को २७ जून १८४४ को सिंहासन पर स्थापित किया गया। १८५७ के भारतीय विद्रोह के दौरान, वे ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रति वफादार थे। अक्टूबर 1872 में, उन्होने टी. माधव राव को इंदौर के दीवान के रूप में नियुक्त किया। उनकी मृत्यु १७ जून १८८६ को हुई और उनके ज्येष्ठ पुत्र, शिवाजीराव शासक बने।

यशवंतराव द्वितीय (शासन: १९२६-१९४८) ने १९४७ में भारत की आजादी तक इंदौर राज्य पर शासन किया। इंदौर को मध्य प्रदेश में 1956 में विलय कर दिया गया।


वंशज

रिचर्ड होलकर
सबरीना होलकर
यशवंतराव होलकर
ऊषादेवी महाराज साहिबा होलकर १५ बहादुर
रंजीत मल्होत्रा
दिलीप मल्होत्रा
विजयेन्द्र घाटगे
सागरिका घाटगे

इंदौर के होलकर महाराजा

मल्हार राव होलकर प्रथम (शासन: २ नवम्बर १७३१ से १९ मई १७६६)
मालेराव होलकर (शासन: २३ अगस्त १७६६ से ५ अप्रैल १७६७)
अहिल्यबाई होलकर (शासन: २७ मार्च १७६७ से १३ अगस्त १७९५)
तुकोजीराव होलकर (शासन: १३ अगस्त १७९५ से २९ जनवरी १७९७)
काशीराव होलकर (शासन: २९ जनवरी १७९७ से १७९८)
यशवंतराव होलकर प्रथम (शासन: १७९८ से २७ अक्टूबर १८११)
मल्हार राव होलकर तृतीय (शासन: २७ अक्टूबर १८११ से २७ अक्टूबर १८३३)
मार्तण्डराव होलकर (शासन: १७ जनवरी १८३४ से २ फ़रवरी १८३४)
हरिराव होलकर (शासन: १७ अप्रैल १८३४ से २४ अक्टूबर १८३४)
खांडेराव होलकर तृतीय (शासन: १३ नवम्बर १८४३ से १७ फ़रवरी १८४४)
तुकोजीराव होलकर द्वितीय (शासन: २७ जून १८४४ से १७ जून १८८६)
शिवाजीराव होलकर (शासन: १७ जून १८८६ से ३१ जनवरी १९०३)
तुकोजीराव होलकर तृतीय (शासन: ३१ जनवरी १९०३ से २६ फ़रवरी १९२६)
यशवंतराव होलकर द्वितीय (शासन: २६ फ़रवरी १९२६ से १९४८)
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Gaderia के साथ एक भेड़ की खोज

एक गडरिये ( पाल ) का बेटा रोज अपनी भेड़ो को चराने के लिए जंगल में ले जाता था । उस गडरिये के पास 50 भेड़े थी । वह हर रोज अपनी भेड़ो को लेकर जंगल में निकल जाता था । वह अपनी भेड़ो का बहुत ही ध्यान रखता था । एक बार जंगल में उसकी एक भेड़  खो गई । अपनी एक भेड़ खो जाने पर वह उदास हो गया ।

वह अपनी 49 भेड़ो को बीच रास्ते में छोड़कर अपनी एक भेद की तलाश में पुनः जंगल की ओर निकल गया । उसने जंगल का एक -एक कोना चान मारा परन्तु उसे अपनी भेड़ नहीं मिली । उसने फिर भी हार नहीं मानी और अपनी खोई हुई भेड़ को ढूँढता ही रहा । काफी देर ढूँढने के बाद उसे अपनी भेड़ झाडी में बेठी हुई मिली । अपनी खोई हुई भेड़  को पाकर वह बहुत ही प्रसन्न हुई भेड़ को लेकर अपने गाँव की ओर लोट आया । उसके चेहरे पर प्रसन्नता का भाव देखकर गाँव वालो को बड़ी हैरानी हुई । गाँव वाले समझ रहे थे की गडरिया बड़ा मूर्ख है जो अपनी 49 भेड़ो को बीच रास्ते में छोड़कर केवल एक भेड़  ढूँढने के लिए जंगल में वापस गया । एक ग्रामीण ने उस पर  क्रोध करते हुए कहा की तू रात भर 49  भेड़ो  को छोड़कर एक भेड़ के लिए सुनसान जंगल में भागता रहा । तुझे इतना भी ध्यान नहीं रहा की तेरी 49 भेड़ो  का क्या होगा ।

ग्रामीण की बात सुनकर सहज भाव से मुस्कराते हुए उसने कहा की श्रीमान मुझे पता था की मेरी सभी भेड़े समझदार है मुझे पता था की मेरी 49 भेड़े झुंड में होने के कारण आराम से अपने मार्ग पर चलते हुए घर सुरक्षित पहुच जायेंगी । इसलिए मुझे इन भेड़ो की जरा भी चिंता नहीं थी । मुझे तो केवल अपनी उस एक भेड़ की चिंता थी जो झुण्ड से बिछुड़ कर रास्ता भटक गई थी और न जाने कहा खो गयी थी । यह मेरा कर्त्तव्य था की में खोई हुई भेड़ को हर हालत में ढूँढकर लाऊं । और मेने अपनी महनत से आख़िरकार अपने समूह की पिछड़ी हुई भेड़ को पुनः अपने समूह में वापस ले लिया ।

आशय: इस बोधकथा से मुख्य आशय है की यदि कोई व्यक्ति किसी संगठन/ समूह को छोड़कर चला जाता है या बिछुड़ जाता है तो उसे पुन्ह: संगठन/ समूह में वापस लाने का कार्य करना चाहिए और उन कारणों का पता लगाना चाहिए  कारणों के कारण उसने संगठन/ समूह छोड़ा है । 
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History of Gaderia Samaaj

Gaderia Samaaj - गडरिया, धनगर समाज के नाम सन्देश
सभी धनगर, गडरिया भाइयो को सूचित किया जाता है कि सभी भाई अपनी कौम की खातिर अपना योगदान करे |

ये बात सत्य है की धनगर समाज भारत की प्राचीन जातियों में से एक है | हमारे समाज ने पूरे विश्व को अपना अनोखा योगदान दिया है | जैसे “मेष“ राशी , “मेष” राशी सभी राशियों में पहली व सर्वोतम राशी है |

आसमान में मोजूद नक्षत्रमंडल में “aries” या “मेष “ अपने आप में धनगर समाज के पुराने गौरव को दर्शाता है जिसकी खोज या उसका नामकरण किसी “गड़ेरिया” या “धनगर“ ने की होगी | “आर्या” जो की या तो भारत से बहार गए थे या बहार से भारत आये थे | परन्तु वे अपने साथ “गढ़” अर्थात “भेड़” “बकरी” रखते थे इसीलिए उन्हें “गढ़” + “आर्य” अर्थात “गडरिया” कहलाये | “देवनागरी” व “संस्कृत” भाषा “गडरिया” लोगो की ही देन है|
ये बात भी सत्य है की “वेद” ग्रन्थो की रचना “आर्यों” अर्थात “गढ़ार्यो/गडरिया” ने की थी | वेदों में बहुत सी जगह “मेष” सब्द का प्रयोग हुआ है जो “धनगर/गडरिया” जैसे महान लोगो को दर्शता है |

भारत का किसी पुराने ज़माने में नाम “आर्यावत” था | यानी “अर्यो का वतन” उस समय भारत में सिर्फ “गडरिया” अर्थात “धनगर” का हे राज था |   

अफगानिस्तान में आज भी “गंधार” जगह आज भी मोजूद है , जहाँ आज भी लोग भेड़ बकरी पालन का काम करते, गंधार जगह का नाम “गड़रियो” के कारन हे पड़ा |

उत्तराखंड में “गढ़वाल” क्षेत्र आज भी मोजूद है जहा आज भी विभिन जातिया भेड़ बकरी का पालन करते है | हिंदी में “गढ़” शब्द का अर्थ “भेड़” “बकरी” से है | इसी वजह से इस क्षेत्र का नाम “गढ़वाल” पड़ा |

“मध्य भारत” के राज्य “मध्य प्रदेश” जहाँ आज भी “गडरिया” समाज की बहुतात में जनसंख्या है | मध्य प्रदेश में “गडरियाखेडा” नाम से जगह है जिसका वर्तमान नाम “गदरवाडा” है है “ग़दर” शब्द का मध्य भारत की भाषा में अर्थ “भेड़” “बकरी” होती है| मध्य प्रदेश के “विधिशा” - “भोपाल ” मंडल में मोजूद “ग़दरमल” मंदिर जो की 800-900 A.D. के करीब किसी “गडरिया” राजा ने बनवाया था इसी कारन इस मंदिर का नाम“ग़दरमल” पड़ा|
मध्य भारत में “होलकर साम्राज्य” “धनगर” अर्थात गड़रियो का ही राजवंश है | जिसने भारत देश को “महान देवी अहिल्या बाई होलकर” जैसे महान रानी दी जिसने ना केवल हिन्दू समाज को मुगलों से बचाया बल्कि मुगलों दुवारा तोड़े गए मंदिरों को दुबारा बनवाया| स्वंत्रता सेनानी “यशवंतराव होलकर” व रानी “भीमाबाई होलकर” जैसे वीर स्वंत्रता सेनानी दिए | ग्वालियर जिले के गडरिया “तानसेन” का नाम तो सभी लोग जानते है जिनका गोत्र “बानिया” था इसी जाति से ताल्लुक रखते थे |
दक्षिण भारत में “गडरिया / धनगर” “कुरुबा” नाम से जाना जाता है जिसने भारत को “विजय नगर” साम्राज्य दिया | “कनकदास” “कालीदास” जैसे सन्त दिए | “संगोल्ली रायान्ना” जैसे स्वंत्रता सेनानी दिए जिन्होंने अपने प्राण देश के खातिर निरछावर कर दिए थे |

कहा जाता है की भारत की जादातर जातिया गडरिया समाज से निकली है | जिनमे अहीर , गुजर , कुर्मी, जाट ब्राहमण, बनिया , राजपूत  विशेष है |

:-चौधरी अनिल पथरिया (धनगर) (नॉएडा) :-  प

भारत वर्ष के तमाम धनगर (शेफर्ड) समाज के नाम सन्देश

यह बात सत्य है की धनगर समाज भारत के तमाम हिस्सों में फैला है परन्तु यह समाज देश के कोने कोने में अलग अलग नाम से जाना जाता है , इस धनगर समाज ने इंडिया स्तर पर अपनी नेशनल आइडेंटिटी (रास्ट्रीय पहचान) नहीं बनाई है | इसके पीछे कई कारण है पहला कारण यह की जिस वक़्त भारत आजाद हुआ था उस समय धनगर समाज का कोई रास्ट्रीय नेता नहीं था, अगर गैर समाज को देखा जाये तो उनका कोई न कोई नेता था उन्हें आजाद भारत ने मंत्री मंडल में किसी न किसी समाज का नेता भी बनाया गया था जैसे

ब्राहमण : जवाहरलाल नेहरु
कायस्थ : लाल बहादुर शास्त्री
कुर्मी व गुर्जर : वल्लभ भाई पटेल
मेहतर(भंगी) तथा सर्व दलित समाज : बाबा भीम राव आंबेडकर
राजपूत : (डाटा उपलब्ध नहीं है)
जाट :   (डाटा उपलब्ध नहीं है)
सिख :  (डाटा उपलब्ध नहीं है)
अहार(यादव): दिल्ली का पहला मुख्यमंत्री
मुसलमान : (डाटा उपलब्ध नहीं है)    

परन्तु धनगर समाज का कोई नेता नहीं था जो धनगर समाज को उस समय सही रास्ता देखता , किसी गैर समाज के नेता ने भी धनगर समाज को सही रास्ता नहीं दिखाया | धनगर समाज इसी वजह से पिछड़ते पिछड़ते इतना पिछड़ गया की 1990 तक अपना कोई सांसद , विधायक नहीं बना पाया और इस समय तक गैर समाज अपने सेन्टर में कई नेता बना चुके थे, परन्तु अपना समाज गैर समाज के नेताओ को ही नेतागिरी करने वाला समझ चूका था (वैसे ये स्तिथि आज भी है), कुछ समाज ने तो धनगर समाज को राजनीती में न उठने देने के लिए तरह तरह के श्लोक व कहानी तक तयार कर ली जैसे
अहार(यादव) समाज : “गड़ेरिया अहीर भाई भाई, भाई(गड़ेरिया) भाई(यादव) को ही वोट देगा” , “यादव समाज गड़ेरिया समाज के बेटे के सामान है बाप(गड़ेरिया) को बेटे(यादव) की बात माननी चाहिए”,

जाट : हम ऊँची जात है हम राजनीती में खड़े होंगे गड़ेरिया समाज नहीं, “हमे वोट दे दो हम तुमे कुछ जमीन दे देदेंगे “
मुस्लमान : “मुस्लिम में एकता है मुस्लमान के वोट फलानी पार्टी को नहीं जायंगे अगर हमारी बजाय गड़ेरिया को टिकेट मिला तो”
ब्रहमिन : “अनपद गावर समाज राजनीती में आकार क्या करेगा ?”
ये बाते उत्तर प्रदेश , मध्य प्रदेश , राजस्थान , हरयाणा उत्तराखंड में आज भी कही जाती है |

आज धनगर समाज को गैर समाज से राजनीती साथ नहीं मिल रहा है, परिणाम यह होता है की जब धनगर समाज राजनीती में खड़ा होता है तो कुछ समाज तो धनगर कैंडिडेट के राजनीती में होने से इतना चिड़ते है की उनको वोट ही नहीं देते वो सोचते है की “अगर धनगर समाज को वोट दे दिया तो धनगर समाज वी वैल्यू बढ़ जायगी”, “या धनगर समाज के इस कैंडिडेट की वजह से उसकी बिरादरी को टिकट नहीं मिला”, “हम धनगर समाज को वोट नहीं देंगे”
इन तमाम कारणों से तंग आकार धनगर समाज ने हुंकार भरी और अपने छोटे छोटे दल का एकत्रित किया या राजनीती में आने के लिए उत्तेजित किया|जिसके पीछे कई कारण है| गैर समाज के विधायको या सांसदों से जब धनगर समाज को मदद की जरुरत पड़ी तो इन हरामखोरो ने तरह तरह के ताने या साफ़ साफ माना कर दिया, और इनके इस जरा से ना ने धनगर समाज को कही भूमि से भूमिहिंन कर दिया(किसी दबंग लोगो के धनगर की जमीन पर कब्ज़ा करने या दबंगों के परेशान करने से, किसी वजह से सरकार ने धनगर की जमीं ले ली अगर कोई नेता उनका साथ देता दो सायद सरकार उनकी जमींन छोड़ देती क्यों की बहुत लोगो की जमीन किसी विधायक या सांसद की मदद से लोग चुदा लेते है , या किसी न किसी और अन्य कारण से धनगर समाज को अपनी खुद की जमीन से हात धोना पड़ा)
                                 इन्ही “धनगर समाज के वोटो के भिखारियों” से तंग आकार धनगर समाज ने राजनीती में कदम रखा , और उत्तर प्रदेश में तो जैसे धनगर समाज ने बिगुल ही बजा दिया , यहाँ धनगर समाज के कई विधायक , राज्यसभा , लोकसभा सांसद , ऍम० एल० सी०, राज्य मंत्री , कैबिनेट मंत्री बने, परन्तु समाज का पिछड़ा पन्न दूर न हो सका|
अगर धनगर समाज आज़ादी के टाइम से राजनीती में आता तो सायद गैर समाज की तरह आज हम भी धनगर गवर्नमेंट चलते , हमारे भी नेता ताकतवर होते , हम कई पार्टियों के वोट बैंक होते |

या जब भारत आजाद हुआ था तो कोई अपना धनगर समाज का नेता होता जो अपने धनगर समाज की स्तिथि को सरकार के सामने रखतातो सायद आज हम अनुसूचित जन जाति में होते क्यों की धनगर समाज एक घुमाकड़ समाज था और आज भी है |

आज गैर समाज के लोग धनगर समाज का वोट लेने के लिए नए नए फंडे अपने रहे है जैसे धनगर समाज के सरनेम का उपयोग कर रहे है जैसे

•        नारायण पाल खटिक समाज से है ये उत्तराखंड के विधायक  रहे है
•        राघव लखन पाल ब्राहमण समाज से है ये सहारनपुर से विधायक है
•        जगदम्बिका पाल ये राजपूत समाज से है ये डुमरियागंज से सांसद है
•        मोहन पाल खटिक समाज से है , उत्तराखंड की भीमताल सीट से थे
•        मुनसीराम पाल खटिक समाज से है , बिजनौर से सांसद रह चुके है 

हम धनगर समाज को इन गैर समाज व धनगर कौम के साथ खिलवाड़ करने वाले लोगोई से सावधान रहना है 

आंबेडकर जी ने धनगर समाज के साथ क्यों इन्साफ नहीं किया ?

आंबेडकर साहब आज दलितों का भगवान् है , परन्तु उन्होंने बस दलितों का भला किया है , धनगर समाज के लिए उनके पास शोध का टाइम न निकल पाया तो उन्हें जैसे तैसे आंख बंद करके किसी भी बोरी में दाल दिया , और ऐसा सिर्फ धनगर समाज के साथ नहीं बल्कि कई अन्य समाज के साथ भी हुआ है , परन्तु आंबेडकर साहब ने अपने समाज को दिन रात एक करके उन पर अध्यन करके हर राज्य में उनुसुचित जाति या अनुसूचित जनजाति में डाला परन्तु धनगर समाज को कही एस०सी० तो कही एस०टी० तो कही ओ० बी०सी० में , परन्तु धनगर समाज व अन्य कुछ समाज को दलितों के हाथो का खिलौना बना कर चले गए जैसे की मायावती ये धनगर समाज को एस० सी० में डालने जा झांसा दे कर उनका वोट मांग रही है परन्तु यह बात धनगर समाज अची तरह जनता है की मायावती धनगर समाज को एस०सी० में नहीं डालेगी, मुलायम सिंह भी यही खेल खेल रहा है| महारासत्रा में भी शरद पवार धनगरो को एस०टी० में डालने जा झांसा देता आया है , परन्तु वह बुढा हो गया अभी तक मामला अटकाया हुआ है राजीव गाँधी जे के कहने पर भी इस कमिन में धनगरो को एस०टी० में नहीं डाला, पंजाब में भी ऐसा मामला आया है |      

धनगर समाज का अंग कौन कौन है और किस नाम से जाने जाते है ?

उत्तर प्रदेश के पाल , बघेल, गड़ेरिया, धनगर
मध्य प्रदेश के पाल , बघेल , गड़ेरिया , ग़दर , होलकर

**मध्य प्रदेश में बघेल किस जातिया लगाती है जैसे बघेलखंड(रीवा , सतना , सीधी , शहडोल आदि जिले) के राजपूत ,  विधिशा के एस०टी० , जबलपुर मंडल के एस०सी०, और कुछ जंगली जातिया
महारास्ट्र के धनगर , हटकर , होलकर
उत्तराखंड के पाल , गड़ेरिया , धनगर

** उत्तराखंड में पाल टाइटल कुछ पहाड़ी जातिया लगाती है जो धनगर समाज का अंग नहीं है , खटिक समाज भी वह पाल टाइटल का उपयोग करता है , उत्तराखंड के कुछ राजपूत भी पाल शब्द का प्रयोग करते है
राजस्थान के पाल , बघेल , होलकर , गड़ेरिया

** राजस्थान में बघेल कुछ राजपूत जातिया भी लगाती है , रायका/रेबारी/मलधारी समाज ने अपने आपको अभी धनगर समाज का अंग नहीं माना है , उनके रीती रिवाज़ गड़ेरिया समाज से अलग है , उनके शादी बियाह भी अलग रीती रिवाज़ से होते है , जोधपुर जिले में धनगर समाज व रेबारी समाज दोनों है परन्तु दोनों समाज अपनी बेटी एक दुसरे समाज में नहीं बिहते  इस से पता चलता है दोनों भिन भिन जातिया है , राजस्थान की ओ०बी०सी० लिस्ट में ये दोनों जातिया अलग अलग है , दोनों जातियों का जाति प्रमाण पत्र अलग अलग बनता है

गुजरात में गड़ेरिया , धनगर , होलकर
** गुजरात में बघेल या बाघेला या वाघेला राजपूत लोग लिखते है , भरवाड समाज भी रेबारी समाज की तरह भिन है         









धनगर समाज की कविता  उत्साह भरने के लिए नॉएडा (उत्तर प्रदेशके धनगर छोरे  का एक प्रयास
हे ! वीर धनगरो एकता के सूत्र में बांध कर तो देखो !
               
अगर तुमने कुहराम मचा दिया तो कहना !
अपने धनगर भाइयो को राजनीती में उतर कर तो देखो !
               
हमने कल को धनगर प्रधान मंत्री बना दिया तो कहना !
अखाड़ो में धनगर भाइयो को उतार कर दो देखो !
               
हम दबंगई से दुश्मनों को भगाया तो कहना !
अपने समाज की बालिकाओ को पढ़ा लिखा कर तो देखो !
               
बिछेंदरी पाल की तरह अपना नाम इतिहास के पन्नो पर गड्वाया लिया तो कहना !
अपने बच्चो को उच्च स्तर के स्कूलो में पढ़ा लिखा कर तो देखो !
               
कल को धनगरो बच्चा साइंटिस्ट बना तो कहना !
अपने बिजनिस को आगे बाधा कर तो देखो !
               
काल को टाटा अम्बानी बन कर दिखाया तो कहना !
धनगर बच्चो को स्पोर्ट्स में ला कर तो देखो !
               
तुमने कल को वर्ल्ड कप जीता दिया तो कहना !
बस अपने समाज को ही सर्वोच मनो !
               
दूसरा समाज तुम्हारे तलवे चाटने लगे तो कहना !
किसी दुश्मन से डरो घबराओ मत उनका सामना करके तो देखो !
               
कल को दुश्मन दुम दबा कर भागता नज़र आया तो कहना !
बस एक बार भारत के हर राज्य में अपनी आवाज उठा कर तो देखो !
               
सबसे जादा भारत में तुम्हारी आबादी हुई तो कहना !
अपनी धनगर जाति को अपने नाम के पीछे लगा कर दो देखो !
               
कल को धनगर फेमस हो गए तो कहना !
अपनी गाड़ी के आगे पीछे धनगर (पाल, बघेल) लिख कर तो देखो !
               
सबसे जादा गाड़ी तुम्हारी हुई तो कहना !
अपने घर के बहार धनगर भवन की नेम प्लेट लगवा कर तो देखो !
               
कॉलोनी में सबसे जादा भवन तुम्हारे हुए तो कहना !
अपने समाज के लिए कुछ धन एकत्रित करके तो देखो !
               
समाज ने जल्दी तरक्की की तो कहना !
बस एक बार समाज के लिए सही अपने खुद के लिए आरक्षण के लिए लड़ करके तो देखो !
               
तुमने धनगर समाज के लिए कोई नेक काम करके दिखाया तो कहना !
एक बार एकता के सूत्र में बंध कर के देखो तो !
               
तुमने आरक्षण पा लिया तो कहना !
अगर निभा सको ये वादे !
               
तो खुद को महान धनगर समाज का अंग मत कहना !